संत पीपा की गुफा
(तहसील-टोड़ारायसिंह, जिला टोंक)
इन्होने चितावानी जोग नामक ग्रन्थ की रचना की. संत ने अपना अंतिम समय टोडा में बिताया चैत्र कृष्ण नवमी को यही उनका देहांत हो गया. इस स्थान को आज पीपाजी की गुफा के नाम से जानते हैं.
कालीसिंध नदी पर बना प्राचीन गागरोंन दुर्ग संत पीपा की जन्म स्थली रहा है. इनका जन्म विक्रम संवत् 1417 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को खिचीं राजवंश परिवार में हुआ था. वे गागरोंन राज्य के वीर साहसी एवं प्रजापालक शासक थे.
शासक रहते हुए उन्होंने दिल्ली सल्तनत के सुलतान फिरोज तुगलक से संघर्ष करके विजय प्राप्त की, लेकिन युद्ध जनित उन्माद, हत्या, जमीन से जल तक रक्तपात को देखा तो उन्होंने सन्यासी होने का निर्णय ले लिया.
ऐसी मान्यता है कि ये अपनी कुलदेवी से नित्य प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया करते थे. वर्ष 1400 में पिताजी के देहांत के पश्चात पीपानन्दाचार्य जी का राज्याभिषेक होता है तथा ये अपने शासनकाल में फिरोजशाह तुगलक, मलिक जर्दफिरोज और लल्लन पठान जैसे यौद्धाओं को रण में धुल चटाते हैं.
संत पीपा जी के पिता पूजा पाठ व भक्ति भावना में अधिक विश्वास रखते थे. पीपाजी की प्रजा भी नित्य आराधना करती थी. देवकृपा से राज्य में कभी भी अकाल व महामारी का प्रकोप नही हुआ. किसी शत्रु ने आक्रमण भी किया तो परास्त हुआ. राजगद्दी त्याग करने के बाद संत पीपा रामानन्द के शिष्य बने. रामानन्द के 12 शिष्यों में पीपा जी भी एक थे.
वे देश के महान समाज सुधारकों की श्रेणी में आते है. संत पीपा का जीवन व चरित्र महान था. इन्होने राजस्थान में भक्ति व समाज सुधार का अलख जगाया. संत पीपा ने अपने विचारों और कृतित्व से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया.
पीपाजी निर्गुण विचारधारा के संत कवि एवं समाज सुधारक थे. पीपाजी ने भारत में चली आ रही चतुर वर्ण व्यवस्था में नवीन वर्ग, श्रमिक वर्ग सृजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
इनके द्वारा सृजित यह नवीन वर्ग ऐसा था जो हाथों से परिश्रम करता और मुख से ब्रह्म का उच्चारण करता था. समाज सुधार की दृष्टि से संत पीपाजी ने बाहरी आडम्बरों , कर्मकांडो एवं रूढ़ियों की कड़ी आलोचना की तथा बताया कि ईश्वर निर्गुण व निराकार है वह सर्वत्र व्याप्त है.
मानव मन में ही सारी सिद्धिया व वस्तुएं व्याप्त है. ईश्वर या परम ब्रह्म की पहचान मन की अनुभूति से है. संत पीपा सच्चे अर्थों में लोक मंगल की समन्वयकारी पद्धति के पोषक थे.
उन्होंने संसार त्याग कर भक्ति करते हुए कभी भी पलायन का संदेश नही दिया. उन्होंने ऐसें संतो की खुली आलोचना की जो केवल वेशभूषा से संत थे आचरण से नही. उंच, नीच की भावना, पर्दाप्रथा का कठोर विरोध उतरी भारत में पहली बार संत पीपा जी ने ही किया.
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उन्होंने स्वयं से दिया. अपनी पत्नी सीता सह्सरी को आजीवन बिना पर्दे के ही रखा, जबकि राजपूतों में पर्दा प्रथा का विशेष प्रचलन था. गुरु भक्ति की भावना संत पीपा जी में कूट कूट कर भरी हुई थी. उनको जानकारी थी कि वे गुरु के बिना माया जाल से मुक्ति संभव नही है.
जीवन की प्रमुख चमत्कारी घटनाएं:-
1. द्वारिका भगवद्दर्षन-
ऐसा कहा जाता है कि संत पीपा ने अपनी पत्नी सीता सहित द्वारका पहुंचे और वहां के पंडों से पूछा कि भगवान कहां मिलेंगे। पंडों ने उन्हें बावला समझकर ‘समुद्र में होंगे’ ऐसा कह दिया था। कृष्ण-रुकमणि के दर्शन की उत्कृष्ठ लालसा में संत पीपा व उनकी पत्नी सीता समुद्र में कूद गए। इनकी भक्ति-भावना देखकर भगवान् ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए और नौ दिन दोनों पति-पत्नी समुद्र में भगवत् सान्निध्य में रहे। अंततः भगवान् ने पीपा को ब्रह्मज्ञान देकर पुनः धरती पर भेज दिया।
2. सीता जी का अपहरण-
द्वारका से गागरोन की ओर आने पर इनको एक पठान मिला, जो इनकी पत्नी सीता जी के रूप पर मोहित हो गया। उसने पीपाजी से सीता को छीन लिया। दोनों पति-पत्नी ने इस घोर विपत्ति के समय गोविन्द का स्मरण किया। भगवान् ने पठान को दण्ड देकर सीता को उसके चंगुल से छुड़ा दिया।
3. हिंसक बाघ को उपदेष देना-
एक बार द्वारिका से लौटते हुए पीपाजी रास्ता भटक गए। निर्जन वन से जाते समय मार्ग में उन्हें एक शेर मिला। जिसने पीपा दंपती पर आक्रमण कर दिया। इनकी भगवद्भक्ति के चमत्कार से सिंह पीपा के चरणों में नतमस्तक हो गया और भविष्य में शिकार नहीं करने की प्रतिज्ञा की।
4. द्वारका के चंदोवे की आग टोडा कस्बे में सत्संग करते हुए बुझाना-
एक समय जब संत पीपा टोड़ा गांव में सत्संग का लाभ जनता को दे रहे थे, तभी वे अचानक वहां से उठे और अपने हाथों को आपस में रगड़ने लगे। टोड़ा नरेश के पूछने पर उन्होंने बताया कि द्वारका में दीपक से द्वारकाधीष के चंदोवे में आग लग गई थी, इसलिए मैंने बुझा दी। दूत भेज कर ज्ञात किया गया तो यह घटना सत्य निकली।
5. सर्प दंष से ब्राह्मण बालक की जीवन रक्षा-
एक बार नगर में एक ब्राह्मण के पुत्र को सांप ने डस लिया था और उसकी तत्काल ही मृत्यु हो गई। पीपाजी वहां से गुजर रहे थे। ब्राह्मण दंपती बालक को संत पीपा के चरणों में रखकर रोने लगे। संत पीपा ने दया कर ईश्वर से प्रार्थना की और वह बालक जीवित हो गया।
संत पीपा जी के मेले
राजस्थान के बाड़मेर जिले के समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर बना हुआ है जहां पर तीव्र संत पीपा जी का विशाल मेला भरता है इसके अतिरिक्त मसूरिया जोधपुर और गागरोन झालावाड़ में भी संत पीपाजी के विशाल मेले भरते हैं।
संत पीपा जी की मृत्यु
संत पीपा जी ने अपना अंतिम समय टोंक जिले के ‘ टोडा ग्राम ‘ में स्थित एक गुफा में भजन करते हुए बताया । जहाँ पर संत पीपा जी चैत्र कृष्ण नवमी को देवलोक (मृत्यु) को प्राप्त हुए । यह गुफा वर्तमान में ” संत पीपा की गुफा’ (तहसील-टोड़ारायसिंह, जिला टोंक) के नाम से जानी जाती है।
जीवनचरित
भक्तराज पीपाजी का जन्म विक्रम संवत १३८० में राजस्थान में कोटा से ४५ मील पूर्व दिशा में गागरोन में हुआ था।[1] वे चौहान गोत्र की खींची वंश शाखा के प्रतापी राजा थे। सर्वमान्य तथ्यों के आधार पर पीपानन्दाचार्य जी का जन्म चैत्र शुक्ल पूर्णिम, बुधवार विक्रम संवत १३८० तदनुसार दिनांक २३ अप्रैल १३२३ को हुआ था। उनके बचपन का नाम प्रतापराव खींची था। उच्च राजसी शिक्षा-दीक्षा के साथ इनकी रुचि आध्यात्म की ओर भी थी, जिसका प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। किवदंतियों के अनुसार आप अपनी कुलदेवी से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते थे व उनसे बात भी किया करते थे।
पिता के देहांत के बाद संवत १४०० में आपका गागरोन के राजा के रूप में राज्याभिषेक हुआ। अपने अल्प राज्यकाल में पीपाराव जी द्वारा फिरोजशाह तुगलक, मलिक जर्दफिरोज व लल्लन पठान जैसे योद्धाओं को पराजित कर अपनी वीरता का लोहा मनवाया। आपकी प्रजाप्रियता व नीतिकुशलता के कारण आज भी आपको गागरोन व मालवा के सबसे प्रिय राजा के रूप में मान सम्मान दिया जाता है। संत पीपा कुछ समय द्वारिका रहे थे।
रामानन्द की सेवा में
दैवीय प्रेरणा से पीपाराव गुरु की तलाश में काशी के संतश्रेष्ठ जगतगुरु रामानन्दाचार्य जी की शरण में आ गए तथा गुरु आदेश पर कुएँ में कूदने को तैयार हो गए। रामानन्दाचार्य जी आपसे बहुत प्रभावित हुए व पीपाराव को गागरोन जाकर प्रजा सेवा करते हुए भक्ति करने व राजसी संत जीवन व्यतित करने का आदेश दिया। एक वर्ष पश्चात संत रामानन्दाचार्य जी अपनी शिष्य मंडली के साथ गागरोन पधारे व पीपाजी के करुण निवेदन पर आसाढ शुक्ल पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) संवत १४१४ को दीक्षा देकर वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये नियुक्त किया। पीपाराव ने अपना सारा राजपाठ अपने भतीजे कल्याणराव को सौपकर गुरुआज्ञा से अपनी सबसे छोटी रानी सीताजी के साथ वैष्णव-धर्म प्रचार-यात्रा पर निकल पडे।
चमत्कार
पीपानन्दाचार्य जी का संपुर्ण जीवन चमत्कारों से भरा हुआ है। राजकाल में देवीय साक्षात्कार करने का चमत्कार प्रमुख है उसके बाद संन्यास काल में स्वर्ण द्वारिका में ७ दिनों का प्रवास, पीपावाव में रणछोडराय जी की प्रतिमाओं को निकालना व आकालग्रस्त इस में अन्नक्षेत्र चलाना, सिंह को अहिंसा का उपदेश देना, लाठियों को हरे बांस में बदलना, एक ही समय में पांच विभिन्न स्थानों पर उपस्थित होना, मृत तेली को जीवनदान देना, सीता जी का सिंहनी के रूप में आना आदि कई चमत्कार जनश्रुतियों में प्रचलित हैं।
रचना की संभाल
गुरु नानक देव जी ने आपकी रचना आपके पोते अनंतदास के पास से टोडा नगर में ही प्राप्त की। इस बात का प्रमाण अनंतदास द्वारा लिखित 'परचई' के पच्चीसवें प्रसंग से भी मिलता है। इस रचना को बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में जगह दी।
रचना
- पीपाजी की रचना का एक नमूना
- कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ॥
- काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजउ पाती ॥१॥
- काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई ॥
- ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ॥१॥ रहाउ ॥
- जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ॥
- पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होइ लखावै ॥२॥३॥
- टोडा में संत पीपा की गुफाएं हैं।भगत पीपा, जिन्हें संत पीपाजी के नाम से भी जाना जाता है, गगारौनगढ़ के एक राजपूत राजा थे, जिन्होंने एक हिंदू रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन के संत बनने के लिए सिंहासन को त्याग दिया था। उनका जन्म लगभग 1425 ईस्वी में उत्तर भारत (पूर्वी राजस्थान) के मालवा क्षेत्र में हुआ था।